महेन्द्र सिहं पूनिया

क्या चिनार के पेड़ पर
एक भी पत्ता नहीं है
आबरुरेज़ा दोशीज़ा का तन ढकने को ?
क्यों  झुक गया है पोपलर का
आकाश में तना हुआ शीश ?
क्यों रो रहे हैं विलो
झेलम के किनारे सिर झुकाए हुए ?

क्यों सारी की सारी कांगड़ियाँ
ठण्डी हो गई हैं
और शीतल घाटियाँ आग उगल रही हैं ?
क्यों सारे के सारे मर्ग
बन्द से नज़र आते हैं
और क्यों खुल गए हैं
कलाशिंकोवों के मुँह ?

मैं पूछता हूँ क्यों आग लगी थी
शांति और भाईचारे के प्रतीक चरार में ?
क्या यही था संदेश
वली नुरुद्दीन नूरानी का ?

रात के अँधेरे में,निवड़ एकान्त में
मुझे लगता है कि वादी में
हब्बा खातून विलाप कर रही है
और लल्ल दद्दू की चीखें
मेरे सीने को चीर रही हैं।

क्यों बार-बार बूटों तले
रौंदी जाती हैं दोशीजाएँ मेरे गाँव की
और क्यों होती है उनकी आबरू रेज़ा-रेज़ा
कभी इस तो कभी उस वहशी के हाथों ?

क्यों बार-बार जलता है घर मेरा
और क्यों लापता हो रहे हैं जवान मेरे गाँव के
क्यों सारे के सारे शिकारे सुनसान पड़े हैं
और क्यों अमरनाथ के सारे रास्ते पर
मशीनगनें तैनात हैं।

ऐसा कभी तो न था मेरा कश्मीर
इस कदर बिगड़ी हुई तो न थी ये तस्वीर ?

मैं पूछता हूँ किसने आग लगाई है
अमन के इस चमन में
भाईचारे के वतन में
और हमारे तन-बदन में ?
क्यों चुप हैं
हमारे खैरख़्वाह होने का दावा करने वाले
और क्यों ख़ामोश हैं
कश्मीर को अपना कहने का
दम भरने वाले ?

मैं पूछता हूँ इनकी चिन्ताओं में
कश्मीर तो है,पर कहाँ कश्मीरी अवाम है ?
क्या कश्मीर सिर्फ
ज़मीन के टुकड़े का नाम है ?