अमर शहीदों का पैगाम! जारी रखना है संग्राम!!
साथियो! शहीदे-आज़म भगतसिंह के साथी भगवती चरण वोहरा ने कहा था, ‘’खुराक जिस पर आज़ादी का पौधा पलता है, वह है शहीदों का ख़ून’’। ये शब्द भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चंद्
आज का भारत! आँसुओं के समुद्र में ऐयाशी की मीनारें!
15 अगस्त 1947 को हमें अंग्रेजी ग़ुलामी से तो आज़ादी मिली किन्तु साथ ही एक पीड़ादायी दौर की भी शुरुआत हुई। जनता को भरमाने के लिए नेहरू द्वारा समाजवाद का गुब्बारा फुलाया गया जो 1990 आते-आते फुस्स हो गया। जैसे-जैसे देश का पूँजीपति वर्ग शोषण और लूट-खसोट के बल पर अपने पैरों पर खड़ा होता गया वैसे-वैसे ही हमारे पुरखों की मेहनत और खून-पसीने के दम पर खड़ा हुआ पब्लिक सेक्टर कौड़ियों के भाव पूँजीपतियों को सौंप दिया गया। पिछले 66 सालों में देश के सरमायेदारों ने जनता को जी भरकर निचोड़ा है। ‘फोर्ब्स’ पत्रिका द्वारा जारी61 देशों की अरबपतियों की सूची में भारत चौथे स्थान पर है। भारत में पिछले साल की तुलना में अरबपतियों की संख्या 46 से बढ़कर 55 हो गयी है। भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति पूरे देश के कुल राष्ट्रीय उत्पादन के एक चौथाई से भी अधिक है। ‘‘देश’’ की इस ‘‘तरक्की’’ के बाद अब आम जनता का भी हाल देख लिया जाये। ‘युनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोग्राम’ के मानवीय विकास सूचकांक की 146 देशों की सूची में भारत 129वें स्थान पर है। एक रिपोर्ट के अनुसार 45 करोड़ भारतीय ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं। एक सरकारी रिपोर्ट के ही अनुसार देश की लगभग 84 करोड़ आबादी 20 रुपये से भी कम पर जीने के लिए मजबूर है। देश में 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण और लगभग 50 फ़ीसदी स्त्रियाँ ख़ून की कमी का शिकार हैं। ‘वैश्विक भूख सूचकांक’ की 88 देशों की सूची में भारत 73वें स्थान पर है जो पिछले साल से 6 स्थान नीचे है। जबकि सरकारी गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ जाता है। प्रचुर प्राकृतिक संसाधन और शस्य-श्यामला धरती होने के बावजूद करीब 28 करोड़ लोग बेरोज़गार हैं जिनमें पढ़े-लिखे नौजवानों की भी भारी संख्या है। शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि 12वीं करने वालों में से केवल 7प्रतिशत ही उच्च शिक्षा तक पहुंच पाते हैं। देश के दलितों का करीब 90 फीसदी आज भी खेतिहर या औद्योगिक मज़दूरों के रूप में काम कर रहा है और अकथनीय शोषण और अपमान झेल रहा है। आज भी लोग उन बीमारियों से दम तोड़ देते हैं जिनका इलाज सैकड़ों साल पहले ढूँढा जा चुका है। देश की कुल मज़दूर आबादी का करीब 93फ़ीसदी असंगठित क्षेत्र में आता है। इनके लिए श्रम कानूनों का ज्यादा मतलब नहीं है, आये दिन होने वाली दुर्घटनाओं और बिना किसी कानूनी सुरक्षा के बीच यह आबादी ग़ुलामों जैसी स्थितियों में काम करने के लिए मजबूर है। खेत मज़दूर आबादी के हालात तो और भी बुरे हैं। पिछले 12 सालों में देश में 2 लाख से अधिक ग़रीब किसान आत्महत्या कर चुके हैं। देश की बदहाली के आंकड़े कहां तक गिनायें। देश के महाशक्ति बनने और विकासमान होने के दावे करने वाले हमारे ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ को शर्म भी नहीं आती। क्या यही था हमारे शहीदों का ख़ुशहाल भारत का सपना?
दोस्तो, असल में मुनाफ़े की अन्धी दौड़ में लगी यह पूँजीवादी व्यवस्था देश को गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, कुपो
तो फिर आज क्या किया जाय?
साथियो, परम्परा कभी भी उंगली पकड़ाकर मंजिल तक नहीं पहुंचाती बल्कि वह रास्ता दिखाती है। निश्चित तौर पर भगतसिंह और उनकी क्रान्तिकारी धारा के विचार हमारे लिए एक प्रकाशस्तम्भ के समान हैं। उनका सपना एक ऐसे समाज का था जिसमें उत्पादन के तमाम साधनों पर उत्पादक वर्गों का कब्ज़ा हो और इंसानों के द्वारा इंसानों का शोषण असम्भव हो जाय। आज शहीदों को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही हो सकती है कि हम उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचा दें, भगतसिंह ने ही कहा था कि बम-पिस्तौल की दुस्साहसवादी राजनीति से कुछ नहीं बदलता बल्कि‘क्रान्ति की तलवार विचारों की सान पर तेज़ होती है’। आज देश की मेहनतकश आबादी को संगठनबद्ध किए जाने की ज़रूरत है ताकि सच्चे मायने में मेहनतकशों का लोकस्वराज्य कायम हो। चुनावी नौटंकी, किसी भी किस्म की सरकारी योजना और एन-जी-ओ- सुधारवाद से इस देश का भला नहीं होने वाला! 67 साल इस बात को समझने के लिए बहुत होते हैं। आज दुनिया के तमाम हिस्सों में लोग पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ़ सड़कों पर उतर रहे हैं। लेकिन इन स्वतःस्फूर्त बग़ावतों के सामने आज कोई क्रान्तिकारी विकल्प मौजूद नहीं है। हमारे देश में भी स्थितियाँ तेज़ी से विस्फोटक होने की ओर बढ़ रही हैं। महँगाई और बेरोज़गारी से कोई भी सरकार निजात नहीं दिला सकती क्योंकि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरों के भीतर यह सम्भव ही नहीं है। ऐसे में एक ओर हमें एक समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प को पेश करने की ज़रूरत है और साथ ही इस विकल्प को अमली जामा पहनाने के लिए मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी की एक नयी इंक़लाबी पार्टी की आवश्यकता है। देश के संवेदनशील और साहसी युवाओं के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा है कि क्या वे सिर्फ कैरियर बनाने की अन्धी चूहा दौड़ में अपनी सारी रचनात्मकता को होम कर देंगे, या फिर इस देश को शहीदों के सपनों के भारत में तब्दील करने के लिए आगे आएँगे। युनिवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी ऐसे सभी युवाओं का आह्वान करता है – युवा साथियो! जड़ता तोड़ो आगे आओ! शोषणमुक्त समाज बनाओ!!
युनिवर्सिटी कम्युनिटी फॉर डेमोक्रेसी एण्ड इक्वॉलिटी
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