‘मर गई वो भूख से
हताश हो के प्यास से,
अकेलेपन के जाल से,
भुखमरी के सवाल से,
मौत यूँ तो मुश्किल नहीं थी,
मरद को ज़िंदा रहने की ठनी थी,
बस चल पड़ी संग हाथ थामें,
उसकी कब किसने सुनी थी?
मर गई वो आज से,
बढ़ती गर्मीयों के ताप से,
मीडिया की ठंडी थाप से,
अथाह मीलों के पड़ाव से,
राह देखते अपनों के जुड़ाव से,
चुप रही-रही, कुछ ना बोलती थी
नीयत हर आदमी की तोलती थी,
फैले पड़े सब तरफ गिद्ध लालची थे,
इंसानियत भी सहारा देने पैसा मांगती थी |
मर गई वो साँस से,
अपने पाँव के रूखे छाल से,
सूटकेस पर लदे अपने लाल से,
ज़िंदा कोख के दबाव से,
शहरवालों के दुराव से,
थक-हार कर भी ना मदत मांगती थी,
मुफ्त केवल पेड़ों की छाँव मानती थी,
वरना रुकना मिनट भर चिलचिलाती धूप में,
असर केवल जिस्मों की खाल जानती थी |
मर गई वो श्राप से,
गरीबी के मलाल से,
गाँव के कच्चे मकान से,
सरकारों के बेरहम सुझाव से,
ट्रेनों के एैतिहासिक भटकाव से,
राजनीतिक खींचतान से,
इंतज़ामों के उतान से,
लाश उसकी घंटों पड़ी रही कोने में बेजान थी,
फिर भी बेटा मनाता शायद माँ उसकी नाराज़ थी,
अधिकारी भी अपना पल्ला झाड़ दोषमुक्त हो गए,
बोले हमारी जाँच के अनुसार वो औरत पहले ही
मानसिक रूप से बीमार थी |- मुसाफ़िर “
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